सवाल
कुछ लोग कहते हैं के जुमां के दिन रोज़ा रखना मकरुहे तन्ज़ीही यानि बेहतर नहीं है इस के बारे में कुछ बतायें
जवाब
देखिए खुसूसियत के साथ तन्हा जुमां या सिर्फ हफ्ते का रोज़ा रखना मकरुहे तन्ज़ीही है, अगर किसी मख़सूस तारीख़ को जुमां या हफ़्ता आगया तो कराहत नहीं- मसलन 15 शाबानुल मुअज़्ज़म 27 वीं रजब, वगैरह, अगर कोई जुमा के दिन रोज़ा रखे और एक रोज़ा आगे या पीछे मिला ले यानि जुमेंरात जुमा या जुमा सनीचर तो फिर ये मकरुह नहीं हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम इरशाद फरमाते हैं कि जुमा का दिन तुम्हारे लिए ईद है इस दिन रोज़ा मत रखो मगर ये के इस से पहले या बाद में भी रोज़ा रखो
📚अत्तरग़ीब वत्तरहीब जिल्द 2 सफह 81 ह़दीस 11 📚सही इब्ने खुज़ैमा जिल्द 3 सफह 315 हदीस 2161
सरकारे आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रह़मा तह़रीर फरमाते हैं कि जुमा का रोज़ा जब उस के साथ पंजशम्बा यानि जुमेंरात का या शम्बा यानी हफ्ता का रोज़ा भी शामिल हो तो दस हज़ार बरस के रोज़ों के बराबर है
📚फतावा रज़विया शरीफ़ जिल्द 10 सफह 653
जुमा का रोज़ा हर सूरत में मकरुह नहीं मकरुह सिर्फ इस सूरत में है जबकि कोई खुसूसियत के साथ सिर्फ़ जुमां का ही रोज़ा रखे
अज़ क़लम 🌹 खाकसार नाचीज़ मोहम्मद शफीक़ रज़ा रिज़वी खतीब व इमाम (सुन्नी मस्जिद हज़रत मनसूर शाह रहमतुल्लाह अलैह बस स्टॉप किशनपुर अल हिंद)
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