मस्जिदों को सजाना, और इमामों को सताना ?
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आजकल काफी देखा गया है कि लोग मस्जिदों को सजाने-संवारने में खूब पैसा खर्च करते हैं, और इमामों मौलवियों को सताते उन्हें तंग और परेशान रखते हैं, और कम से कम पैसे में काम चलाना चाहते हैं, जिसकी वजह से वह सजी-संवरी खूबसूरत मस्जिदें कभी-कभी वीरान सी हो जाती हैं और उनमें वक्त पर अजान और इक़ामत नहीं हो पाती,,, इस बयान से हमारा मक़सद यह नहीं कि मस्जिदों को सजाना और खूबसूरत बनाना मना है, बल्कि यह बताना है कि किसी भी मस्जिद की असली खूबसूरती यह है कि उसमें दीनदार खुदाए तआला का ख़ौफ़ रखने वाला, लोगों को हुस्नो खूबी और हिकमतो दानाई के साथ दीन की बातें बताने वाला, आलिमे दीन इमामत करता हो। चाहें, वह मस्जिद कच्ची और सादा सी इमारत हो, किसी मस्जिद के लिए अगर नेक और सही इमाम मिल जाए तो लोगों को चाहिए कि उसको हर तरह खुश रखें उसका खूब ख्याल रखें बल्कि पीरों से भी ज़्यादा आलिमों, मौलवियों, इमामों और मुदर्रिसीन का ख्याल रखा जाए। क्योंकि दीन की बक़ा और इस्लाम का तहफ़्फ़ुज़ इल्म वालों से है। अगर इमामों और मौलवियों को परेशान रखा गया तो वह दिन दूर नहीं कि मस्जिदें और मदरसे या वीरान हो जाएंगे, या उनमें सबसे घटिया किस्म के लोग इमामत है करेंगे, और बच्चों को पढ़ाएंगे, अच्छे घरानों और अच्छे ज़ेहन औ फिक्र रखने वाले लोग, इस लाइन से दूर हो जाएंगे
खुलासा यह के आलिमों और मौलवियों को चाहिए वह पैसे और माल और दौलत का लालच किए बगैर दीन की खिदमत करें। और क़ोम को चाहिए कि वह अपने आलिमों मौलवियों और दीन की खिदमत करने वालों को खुशहाल रखें, उन्हें तंगदस्त और परेशान ना होने दें।.....और हमारी राय में आजकल शादीशुदा बेरुनी इमामों के लिए रिहायशी मकानों का बंदोबस्त कर देना निहायत ज़रूरी है, ताकि उन्हें बार-बार घर ना भागना पड़े, और वह नामाज़ों को पढ़ाने में पाबंदी कर सकें और अंगुष्त नुमाइयों, बदगुमानियों से महफूज़ रहें
📚 (ग़लत फेहमियां और उनकी इस्लाह, सफ़्हा न. 51,52)
✍🏻 अज़ क़लम 🌹 खाकसार ना चीज़ मोहम्मद शफीक़ रज़ा रिज़वी खतीब व इमाम (सुन्नी मस्जिद हज़रत मनसूर शाह रहमतुल्लाह अलैह बस स्टॉप किशनपुर अल हिंद)
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